गर्मी की छुट्टी

गर्मी की छुट्टी

Blog from one of our user Vijay

गर्मी की छुट्टी आते ही गांव नामक निरीह शब्द पर एक साथ कई हमले होतें हैं..पहला हमला होता है दिल्ली,नवेडा, लोधियाना से पधारे मोहन गुड्डू और सुग्गन,भोला,राधेश्याम,बब्बन,मुन्ना टाइप प्रजाति का.
इस प्रजाति के लोग दो साल पहले गांव छोड़ चुके होतें हैं..गाँव छोड़ने की वजह ये होती है कि ठीक दो साल पहले किसी ममता,बबिता,कलावती,विमला से इनकी शादी हो गयी होती है।
और शादी बाद इनका दुलहिन प्रेम इतना फफाने लगता है कि ये रात को आठ बजे ही किल्ली लगाकर सो जातें हैं और सुबह दस बजे तब उठतें हैं जब इनके बाबूजी खेत में गोबर फेंकने के बाद दतुवन-कुल्ला करके गाय को लेहना देने के पश्चात नहा रहे होतें हैं.वहीं हैण्डपम्प चलाती गुड़िया से धीरे से पूछते हैं..
"गुड्डआ उठले ना रे अभी नौ बज गइल" ?
गुड़िया धीरे से मुड़ी हिलाकर "ना" में जबाब देती है.इस गोपनीय जानकारी के बाद इनके बाबूजी के मुख से उत्प्रेक्षा,श्लेष,यमक अनुप्रास के रस में लिपटा,....लक्षणा, व्यंजना की धधकती आग में पका, जो दिव्य और ओजपूर्ण वाक्य निकलता है,वो एस्थेटिक्स के नवेदितों,पिंगल के पढ़वइयों,ग़ज़ल के गवइयों के साथ हिंदी के स्वनामधन्य आत्ममुग्ध आलोचकों के लिए शोध का विषय हो सकता है....क्योंकि उस वाक्य का आरम्भ यहां से होता है..
"करे ! एगो गाँव में मनोहरा के बेटा जोगिन्द्रा मउगा रहे कि अब तुहीं हो गइले..हरे ! साला..खाली तोरे बियाह भइल रहे कि हमरो भइल रहे रे बेहुद्दा..ना उठबेs मेहरमऊग कहीं का..आलसी ससुर..मेहरी आवते इज्जत के लवना लगा दिहलें इनकर..."
आही दादा ! इतना सुनने के बाद इस वाक्य का सबसे ज्यादा असर किसी पर होता है तो वो इनकी मेहरारु पर होता है..वो तुरन्त आटा गूँथना छोड़कर लिलार से सरकते पसीने को पोछते,बिगड़ते लिपिस्टिक को ठीक करते,पेडीक्योर को कोसते अपने सइयाँ जी को जगाने जाती है.
"ए जी..घर-दुआर बेचकर कब तक सोएंगे.जाइये न बाबूजी गरिया रहें हैं.सुबहे-सुबह आपकी माई बहिन को याद तो करिये रहें हैं..हमार बुढ़ महतारी को भी नहीं छोड़ रहें हैं.."
लेकिन इस मनुहार का गुड्डुआ पर काहें कोई असर होने जाए बाबूजी को कौन सुनता है जी.उसके कान में तो आशिकी,मोहब्बतें,दिलवाले और धड़कन के गानें एक साथ बज रहे हैं..चूड़ी, पायल,बिंदी,सेज,सजनिया, जैसे शब्द हिलोर मार रहें हैं...इमरान हाशमी और सनी लियोनी कत्थक कर रहें हैं.. धीरे से मेहरारु का बाँह पकड़ के एक आध्यात्मिक सी अंगड़ाई लेता ही है..तब तक मेहरारु खिसिया जाती है..
"बक्क..कोई टाइम होता है कि नहीं ?..चौबीसों घण्टा हरदम बउराए रहतें हैं का जी ?
साधो..ये प्रक्रिया लगभग दो महीने लगातार चलती है..और ऐसी चलती है कि एक दिन बाबूजी दिन भर गरियातें हैं..मां दिन भर बोलना छोड़ देती है..रात को मेहरारु रूठकर दालान में सो जाती है..
तब इन्हें यकीन हो जाता है कि अब वो पापा बनने वाले हैं...और ये गाँव,ये घर, ये माँ,ये बाप, ये चाँद जैसी दुल्हन,जो नइहर में लाइफबॉय से नहाती थी, पियरकी माटी से बाल धोती थी. यहां डभ का शैम्पू और पैंटीन का कंडीशनर माँग रही है.ई सब मोह-माया है...इसलिए हे तात ! शीध्र ही कुछ कमाने-धमाने का बंदोबस्त करना चाहिए..
यही सोचकर बेचारे एक दिन बैग में एक बोतल पानी के बगल में अपने हाईस्कूल और इंटर के सर्टिफिकेट को रख लेतें हैं..साथ ही चार पूड़ी और आम के सूखे अँचार के साथ मेहरारु के एक रूखे चुम्मे को लेकर मुँह बनाए,गर्दन झुकाए.नोएडा, सूरत और लुधियाना नामक जगह पर कमाने पहुँच जातें हैं..
और फिर इसी जून की छुट्टी में इसलिए गांव आतें हैं.क्योंकि इसी महीने में किसी दिन इनकी सबसे छोटकी और कटाह साली का बियाह फिक्स होता है. और वो फरवरी से ही इनको फोन पर तबाह कर देती है.
"ए जीजा जी....आप तो बड़ी वो हैं जी..मने आएंगे नहीं हमरे बियाहवा में? तो देहीं का सब छेद खोलकर सुन लीजिए आएंगे नहीं तो हमू आपको आज से जीजू नहीं कहेंगे.."
बेचारे जीजू का मन इस धमकी से घबराता है..तब तक मार्च आते ही मेहरारु कपार खा जाती है कि..
"ए रों..का हम नइहरे वाला झुमका अपने बहिन के बियाह में पहिनेंगे..उहे पुरनका डिज़ाइन..
"हऊ अयरनवा (असली नाम आर्यन) कs माई रेवती के सोनरा से एकदम नया डिजाइन बनवाई है.. "
लीजिए..तब तक जून आते-आते इनके बाबूजी तबाह कर देतें हैं.."ए गुड्डू धान रोपवाना है..बासमती का बिया लेना है,लेव लगवाना है..कार्तिक में का ही टेक्टर का पइसा बाकी है..खाद भी लेना है..कइसे काम चलेगा..गुड़िया बड़ी हो गयी अब उसका भी बियाह शादी होगा..कहीं लइका देखा जाएगा की नहीं ?
बेचारे आम के अँचार जैसा सुख गए गुड्डुआ को गाँव आने के बाद समझ में ही नहीं आता कि वो साली का बियाह करे कि मेहरारु का झुमका बनवाए,
धान का लेव लगाए की गइया के लिए पलानी छवाए..
दूसरा हमला होता है... संस्कारी बीटेक और ज्यादातर बीटेक्स वाले इंजीनियरों का,
बीसीए, एमसीए,बीबीए,एमबीए करने वाले लौंडों का,जो हाईस्कूल के बाद ही गांव छोड़ चूके होतें हैं..क्योंकि उनके पापा आर्मी में होते हैं..मास्टर होतें हैं..नेता होतें हैं..ठीकेदार होतें हैं..और कुछ नहीं होतें हैं तो किसान होतें हैं..उनका लौंडा भले नोएडा में बारह हजार की ही नौकरी करें लेकिन गाँव में उसका भौकाल सुंदर पिचाई और स्टीव जॉब्स से तनिक भी कम नहीं होता है..
ये शहर में भले बासी पराठा खाकर ड्यूटी करने चले जातें हों.. लेकिन गाँव आने पर रोटी जरा सी ठंडी हुई कि तुरन्त थरिया फेंक देतें हैं..और माँ को,बहन को, भौजाई को धमका भी देते हैं कि.."अईसा खाना तो मेरी कम्पनी के स्वीपर भी नहीं खाते हैं..."
ये भले मेट्रो में धक्के खाते,ऑटो वाले से लड़ते,बस वाले झगड़ते ड्यूटी से आते हों लेकिन गांव के लड़कों से अंग्रेजी मिश्रित हिंदी में ऐसे बतियातें हैं.मानों Bmw से आफिस जातें हों और फरारी से वापस आतें हों..भले ऑफिस की स्वीटी नामक कलीग इनको ठीक से देखती तक न हो लेकिन भौकाल ऐसा देतें हैं मानों इलियाना डीक्रूजा के साथ डिनर करतें हों और काज़ल अग्रवाल के साथ लंच शाम को आलियाकी स्कूटी पर बैठकर रोज कॉफी पीने जातें हों..और कुछ ही दिन बाद सुनील मित्तल और मुकेश अम्बानी के सगे दामाद बनने वाले हों..
लेकिन इनके भौकाल टाइट करने की मुख्य वजह ये भी होती है कि गांव में इनके तिलकहरू नामक खरीदार अपनी बेटी का फोटो लेकर आने लगतें हैं.और दस लाख दहेज के साथ एक फोर व्हीलर देने की बात करने लगतें हैं..सो बाजार टाइट करना जरूरी हो जाता है...
ये छान पगहा तुरातें हैं कि "भक्क अभी दो साल शादी नहीं करनी है..भक्क अभी तो बैंक की तैयारी करनी है..भक्क पापा सोच रहा कि प्रमोशन हो जाए तब.बक़्क़ ममी अभी तो सैलरी ही नहीं बढ़ी..क्या चाचा अभी तो मैं नितिन से चार साल छोटा हूँ तो अभी क्या जल्दी है यार..?"
इधर गाँव के चनमन,मुनमुन,सोनू,रिंटू नामक लड़कों के सामने अपने दोस्तों से फोन पर बतियातें भी हैं...
"यार प्रांजल..ओय तनिष्क,यार दिव्यांश..गांव में कुछ जम नहीं रहा.साला न बिजली न पानी न सड़क..ऊब गया यार..यार टीना के साथ केएफसी वाली कॉफी बड़ी की याद आ रही.उसके साथ वो सीपी की सांझ को मिस कर रहा बे...लेकिन वहीं बेचारे फेसबुक पर गाय,बैल,भैंस दालान,छरदेवाल,मुंज ऊख, का फोटो भी शेयर करतें हैं..और सिंगल होने का रोना रोकर ये जता देतें हैं कि गाँव उनके दिल में कम दिमाग में ज्यादा बसा है..
तीसरी प्रजाति होती है..फुआ उर्फ बुआ लोगों की..शादी के बाद इनको इंदौर वाली बुआ,अहमदाबाद वाली बुआ,जोधपुर वाली बुआ के नाम से जाना जाता है..गांव आने के बाद इनका मुख्य काम होता है गांव घूमना..और पुरुब टोला से लेकर पश्चिम टोला..और उत्तर टोला से लेकर दक्षिण टोला तक की वो रहस्मयमयी बातें पता करना जो इनकी अनुपस्थिति में आज तक प्रचारित नहीं हो पाई हैं..
"ए सखी..पिंटुआ बो सुंदर तो है.लेकिन नाक उसका चोख नहीं है और ए सखी नाटी भी है..करिमना बो..लम्बी तो है ए सखी..नाक भी चोख है लेकिन ए सखी फेस कटिंग सुंदर नहीं है.
आही ए सखी करेक्टर तो उसका बहुत पहले से ही खराब था..लेकिन अब इतना गिर जाएगी पता नहीं था..ए सखी दिव्य के पापा को मेरा दुख तनिक भी बर्दाश्त नहीं होता है..बर्तन तो मांजते ही हैं.कभी-कभार झाड़ू भी लगा देतें हैं..." अरे ! ए सखी केतना मानते हैं जी तुमको दिव्य के पापा..एक मेरे नाव्यांश के डैडी हैं खाना खाकर थरिया भी ठीक से नहीं रखतें हैं...
इस व्यापक शोध के पश्चात गाँव से जाते-जाते इनका अपने भौजाई से एक दो बार झगड़ा भी हो जाता है..जिसका मतलब ये होता है कि वो आज से नइहर झांकने भी नहीं आएंगी..माई मर गयी उसी दिन उनका नइहर भी मर गया..जय सियाराम..
एक प्रजाति होती है हम जैसे बीएचयू, इलाहाबाद,लखनऊ यूनिवर्सिटी में तथाकथित उच्चतर अध्ययन करने वालों की...इनका हाल ठीक ऐसा होता है जैसे किसी कार्यक्रम के बाद टेंट सामियाना और साउंड वालों का होता है..गांव आने के बाद इनका मुख्य काम होता है..गैस भरवाना,बिजली का बिल जमा करना..घर बनवाने के लिए सीमेंट खरीदना.छड़,बालू गिट्टी का भाव पता करना..और खेत के लिए खाद खरीदना.. साथ ही गांव के उस अति बुद्धिजीवी चाचा से ताना भी सुनना..जो पांचवी क्लास में भी तीन बार फेल होकर ब्याज पर पैसे बांटकर बलिया में दो जगह जमीन ले चूके हैं..
"अरे ! एमो-ओमें में कुछ नही रक्खल है अतुल बाबू..काहें नहीं बीएड और बीटीसी किए..
पीएचडी करोगे..भाक बुड़बक..अरे पीएचडी करके तो आज लखन पांडे का बबलूआ कोचिंग पढ़ा रहा है..का मिलता है उसको?..दिन भर दिस-दैट करो तो तीन हजार भी नहीं मिलता..का करोगे पीएचडी करके..बाभन, क्षत्रिय भूमिहार के लइका को नोकरी मिलेगा अब ?
इनसे बात करने के बाद यकीन हो जाता है कि ये संसार असार है. हम व्यर्थ पढ़ ही नहीं रहे हैं.व्यर्थ जी भी रहें हैं..हम धरती के बोझ हैं..और इस रिसर्च के ख्यालात को छोड़कर जल्दी से अब पान,बीड़ी, सिगरेट और कमला पसन्द की दुकान खोल लेनी चाहिए..इसी में भलाई है..
साधो.क्या कहें..बड़े-बड़े किस्से हैं..बड़ी-बड़ी कहानियां हैं..गांव आते ही मेरा मन बेचैन सा हो जाता है..देखता हूँ कि इधर पुरुवा-पछुआ की जंग लड़ते खेतों पर ,मूंग और जनेरा की पकती बालियों पर..गाँव के पश्चिम बचे आखिर आम के पेड़ पर..जेठ-आसाढ़ में तपते सिवान पर..सावन के इंतजार में मीठी होती जामुन पर.. महुआ की डाल पे बैठी कोयल पर न किसी गुड्डू का असर है न ही किसी इंजीनियर का.न मेरे आने से कोई कहीं प्रभाव पड़ा है न अहमदाबाद वाली बुआ के जाने से कोई असर..गाँव अभी भी वहीं का वहीं है.. अपनी विडम्बनाओं के साथ जूझता..वो न ठीक शहर हो पाया है और न ही ठीक से गाँव ही रह पाया है..!

 
 
 

 


Posted: 30 Jun 2017